लेख-निबंध >> रामधारी सिंह दिनकर संकलित निबंध रामधारी सिंह दिनकर संकलित निबंधवीरेश कुमार
|
10 पाठकों को प्रिय 164 पाठक हैं |
रामधारी सिंह दिनकर संकलित निबंध शीर्षक यह पुस्तक संपूर्ण दिनकर के वैचारिक स्रोत को देखने की प्रेरणा देती है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (1908-1962) शौर्य एवं सामाजिक पीड़ा के
आवेश और पूर्ण स्वाधीनता की अभिलाषा के रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में
भारतीय संस्कृति की यथार्थ तस्वीर दिखती है। आरंभिक समय से ही उन्होंने
राष्ट्र के जीवन, राष्ट्र की संवेदना तथा समकालीन राजनीतिक चेतना में आ
रहे परिवर्तनों को सजगता के साथ रूपायित किया। शुरू से अंत तक उनकी
पक्षधरता शोषित–पीड़ित जनता के साथ रही। उनकी काल चेतना में
वैसे
समाज की कल्पना झलकती है जहाँ उत्पीड़न और असमानता की जगह न हो। शोषण
मुक्त समाज का निर्माण उनका वैचारिक पक्ष था। उनके संपूर्ण रचना संसार में
इन सभी प्रतिबद्धताओं की झलक दिखाई देती है। रामधारी सिंह दिनकरः संकलित
निबंध शीर्षक यह पुस्तक संपूर्ण दिनकर के वैचारिक स्रोत को देखने की
प्रेरणा देती है।
संकलक वीरेश कुमार का संपादन कौशल उनकी निपुणता और चयन की पटुता का परिचय देता है।
संकलक वीरेश कुमार का संपादन कौशल उनकी निपुणता और चयन की पटुता का परिचय देता है।
भूमिका
हिन्दी के ‘उर्वशी’, ‘कुरुक्षेत्र’ और
‘रश्मिरथी’ समेत 33 काव्य-कृतियों के रचयिता और
‘राष्ट्रकवि’ के विशेषण से विभूषित डॉ. रामधारी सिंह
‘दिनकर’ एक उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। उनकी पुस्तकों की
कुल
संख्या 60 बताई जाती है, जिनमें सत्ताइस गद्यग्रंथ हैं। इनमें आधी
पुस्तकों में निबंध या निबंध के ढंग की चीजें संकलित हैं। प्रकाशन वर्ष के
अनुसार इनका क्रम है-मिट्टी की ओर (1946), अर्धनारीश्वर (1952), रेती के
फूल (1954), हमारी सांस्कृतिक एकता (1954), राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता
(1958), काव्य की भूमिका (1958), पंत, प्रसाद और मैथिली शरण (1958),
वेणुवन (1958), धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959), वर-पीपल (1961), शुद्ध
कविता की खोज (1966), साहित्यमुखी (1968), भारतीय एकता (1970), आधुनिक बोध
(1973), विवाह की मुसीबतें (1974) आदि। इनके
अतिरिक्त–देश–विदेश (1957), लोकदेव नेहरू (1965),
राष्ट्रभाषा
आंदोलन और गांधी जी (1968) जैसी कृतियां भी हैं, जिनमें यात्रा-वृतांत व
संस्मरण आदि के बीच–बीच में वैचारिक निबंध गुम्फित हैं।
इन संकलनों में दिनकर जी के लगभग एक सौ पच्चीस निबंध संकलित हैं। उपर्युक्त सूची से पता चलता है कि दिनकर जी सन् 1940 के आसपास गद्य लेखन की ओर गंभीरता से प्रवृत्त हुए। उनका पहला संकलन ‘मिट्टी की ओर’ 1946 में प्रकाशित हुआ। जबकि कविता लेखन वे 15-16 वर्ष की अवस्था से ही करने लगे थे। उस समय वे माध्यमिक विद्यालय के छात्र थे।
उनकी पहली कविता 1924-25 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी। दिनकर की पहली काव्य पुस्तक ‘प्रण-भंग सन् 1929 में प्रकाशित हुई थी। यह ‘महाभारत’ के कथानक पर आधारित थी। इस समय उनकी अवस्था 21 वर्ष की थी।
पद्य से गद्य की ओर प्रवृत्त होने में दिनकर जी ने लगभग 20 वर्षों का समय लिया। प्राचीन मनीषियों ने भी गद्यं कवीणां निकषं वदन्ति ! अनुमान होता है कि दिनकर ने लगभग दो दशकों की काव्य–साधना के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ गद्य के क्षेत्र में प्रवेश लिया। तभी तो उनका गद्य इतना प्रगल्भ, परिमार्जित और प्रभावोत्पादक बन पड़ा है। बाद की पीढ़ियों के कवियों-लेखकों के लिए यह एक अनुकरणीय बात है।
इस ग्रंथ–सूची से यह भी पता चलता है कि वर्ष 1958-59 में दिनकर का गद्य–लेखन अपने उत्कर्ष पर था। इस साल उनके 5 निबंध संग्रह प्रकाशित हुए। ‘मिट्टी की ओर’ उनका पहला और ‘विवाह की मुसीबतें’ अंतिम निबंध संकलन माना जाता है। इस संबंध में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि लेखक का विवाह 1920-21 में हुआ था जब उनकी अवस्था 13 वर्ष की थी। लेकिन विवाह की मुसीबतें नामक यह संकलन सन् 1974 में अर्थात उनके विवाह के लगभग 54 वर्ष बाद प्रकाश में आया। उनकी पत्नी का नाम श्रीमती श्यामवती थी।
प्रस्तुत संकलन में संकलित रचनाएं उनकी जिन कृतियों से ली गई हैं, वे हैं-‘साहित्यमुखी’(1968), ‘मिट्टी की ओर’ (1946)’, ‘अर्धनारीश्वर’ (1952),’ ‘वेणुवन’ (1958), ‘वर-पीपल’ (1961), ‘चेतना की शिखा’ (1973), ‘रेती के फूल’ (1954) ‘हमारी सांस्कृतिक एकता’ (1954), ‘काव्य की भूमिका’ (1958), ‘देश-विदेश’ (1957), ‘धर्म, नैतिकता और विज्ञान’ (1959), शुद्ध कविता की खोज’ (1966), ‘लोकदेव नेहरू’ (1965), ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी (1968),‘भारतीय एकता’ (1970), आधुनिक बोध (1973) और ‘संस्कृति के चार अध्याय’। संकलित रचनाओं के इस क्रम से लेखक की विचार धारा के आरोह-अवरोह को रेखांकित करने में सहायता मिलती है।
इन संकलनों और इनसे लिए गए निबंधों के शीर्षकों पर गौर करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनमें साहित्यिक विषयों के साथ-साथ कला, संस्कृति, भाषा, धर्म–दर्शन, संस्मरण और यात्रा जैसे विषयों पर भी चर्चा की गई है। निबंधों के चयन के समय यह ध्यान में रखा गया है कि विषय–वस्तु की दृष्टि से यह संकलन राष्ट्रीय स्तर के पाठकों के लिए उपादेय हो।
हिन्दी के विद्यार्थियों और सामान्य पाठकों के बीच भी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का कवि रूप ही अधिक उजागर है। जबकि उनका गद्यकार रूप भी कम उज्जवल नहीं है। उनके निबंधों का यह संकलन तैयार करवाकर नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। इसके लिए दिनकर के सभी प्रेमियों को ट्रस्ट का आभारी होना चाहिए।
रचना संसार के साथ-साथ दिनकर का जीवन वृत्त भी दिलचस्प है। पाठकों को उनके निबंधों में व्यक्त विचारों और भावनाओं की पृष्ठभूमि को समझने में उनके जीवन वृत्त से सहूलियत होगी। हिन्दी साहित्याकाश के अपने समय के इस जाज्वल्यमान नक्षत्र की दीप्ति समय के अंतराल के साथ कुछ अर्चिचत–सी हो गई है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार प्रदेश के बेगूसराय (पुराने मुंगेर) जिले के सिमरिया गांव में एक निम्न मध्यवर्गीय भूमिहार ब्राह्मण किसान परिवार में 23 सिंतबर 1908 को हुआ था। यह ग्राम पुण्यतोया गंगा नदी के पावन उत्तरी तट पर बसा हुआ है। और मिथिलाचंल का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां पूरे उत्तर बिहार समेत नेपाल से तीर्थ यात्री बड़ी संख्या में आते हैं और प्रति वर्ष कार्तिक माह कल्पवास चलता है। किंवदंती यह है कि विवाहोपरांत सीता को विदा कराकर ले जाते समय राम ने इसी स्थान पर गंगा को पार किया था। तभी से यह स्थान सिमरियाघाट के नाम से प्रसद्धि है। इस नाम में से ‘म’ और ’रि’ को हटा दें तो वह ‘सियाघाट’ हो जाता है।
दिनकर जी के पिता का नाम बाबू रविराय (रविसिंह) था और पितामह का नाम शंकर राय था। इनके वंश में भैरवराय नामक एक कवि भी थे जिनकी ब्रजभाषा में लिखित पोथी ‘नगर-विलाप’ है। दिनकर जी की माता का नाम मनरूप देवी था।
उस जमाने में सिमरिया गांव के घर–घर में नित्य ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता था। उनके पिता जी अपने समाज में मानस के मर्मज्ञ समझे जाते थे और लोगों का ख्याल था कि उनको यह ग्रंथ लगभग पूरी तरह कंठस्थ है। इसी धर्ममय वातावरण में बालक रामधारी का जन्म और लालन-पालन हुआ।
जिस समाज में उन्होंने होश संभाला वह साधारण किसानों और खेतिहर मजदूरों का समाज था, जहां अधिकांश लोग निरक्षर और अंधविश्वासी थे। ‘दिनकर’ ने अपने जीवन मूल्य इसी परिवेश में स्थिर किए। इसी वातावरण में उन्होंने अपने साहित्य की दिशा निर्धारित की।
1 दिसंबर 1973 को जब दिनकर जी को ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब अपने उद्बोधन में उन्होने कहा था-भगवान ने मुझको जब इस पृथ्वी पर भेजा तो मेरे हाथ में एक हथौड़ा दिया और कहा कि जा तू इस हथौड़े से चट्टान के पत्थर तोड़ेगा और तेरे तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी कला के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे।....मैं रंदा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था। मेरे हाथ में तो कुल्हाड़ा था जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा था।....
अपने प्रशंसकों के बीच, जिनमें इन पंक्तियों के लेखक से लेकर स्व. जवाहरलाल नेहरू तक शामिल हैं, दिनकर, पौरुष और ललकार के कवि माने जाते हैं। राम स्वरूप चतुर्वेंदी जैसे प्रशंसा–कृपण आलोचकों ने भी उन्हें उद्बोधन का कवि माना है।
दिनकर जब दो साल के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया। उनके अग्रज और अनुज–दोनों ने इसीलिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और किसानी में लग गए ताकि दिनकर की पढ़ाई निर्बाध गति से चलती रहे। तेरह वर्ष की उम्र में इनका विवाह हुआ और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने माध्यमिक परीक्षा पास की। उनका काव्य-सृजन इसी समय शुरू हुआ।
सन् 1928 में दिनकर जी ने मैट्रिक पास किया। पूरे प्रांत में हिन्दी विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण उनको ‘भूदेव स्वर्ग-पदक’ प्रदान किया गया था। इसके बाद से सन् 1932 तक वे पटना कॉलेज के छात्र रहे और इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया।
दिनकर के छात्र जीवन का समय मोटे तौर पर स्वाधीनता संघर्ष में असहयोग आंदोलन का युग था। उस समय की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं में इतिहास और संस्कृति, धर्म और दर्शन तथा राजनीति से संबंधित सामग्री ही अधिक पाई जाती थी। उनमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में संबंधित चित्रों, कार्टूनों तथा देश भक्ति पूर्ण कविताओं और गीतों का ही बाहुल्य रहता था। राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, समाजवाद और साम्यवाद की चारों तरफ धूम थी। इसी समय ‘दिनकर’ राष्ट्रीय नेताओं की सभाओं में जाने लगे थे और यदा-कदा सभा मंचों से ‘वंदे मातरम्’ का गायन भी करने लगे थे।
उन दिनों पटने से प्रकाशित होने वाली ‘देश’ पत्रिका तथा कन्नौज से प्रकाशित ‘प्रतिभा’ पत्रिका में ‘दिनकर’ की कविताएं स्थान पाने लगी थीं। ‘देश के संस्थापक डॉ. राजेंद्र थे जो स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बने। उनकी पहली कविता जबलपुर से प्रकाशित ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी, जिसके संपादक पं. मातादीन शुक्ल थे। उसी जमाने में बेगूसराय (दिनकर का गृह जिला) से ‘प्रकाश’ नामक पत्रिका प्रकाशित होती थी जिसमें दिनकर की कविताएं प्रमुखता से छपा करती थीं। कहते हैं कि इसी समय उन्होंने अपना उपनाम ‘दिनकर’ रखा। उनके पिता का नाम भी ‘रवि’ था। इस प्रकार अपने ही शब्दों में वे ‘रवि के पुत्र दिनकर हुए।’
सन् 1933 में बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन भागलपुर में हुआ। उसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध इतिहासविद् और पुराविद् डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने की थी। उसी अधिवेशन में ‘दिनकर’ ने अपनी ‘हिमालय के प्रति’ कविता पढ़ी तो समस्त हिन्दी जगत में एकाएक उनका नाम फैल गया। उसी सम्मेलन में वे डॉ. जायसवाल के संपर्क में आए। उन्होंने ही इनकी प्रतिभा को अपने प्रेम और प्रोत्साहन से सींचा। उस समय जायसवाल जी की पुस्तक ‘हिन्दी पॉलिटी’ की चारों तरफ चर्चा थी। स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए संगति और उस माहौल का परिणाम यह निकला कि दिनकर की साहित्य साधना पर इतिहास तथा राष्ट्रवादी विचारधारा का पहले से ही चढ़ा हुआ रंग कुछ और गाढ़ा हो गया।
सन् 1930-35 की अवधि में दिनकर ने जितनी देशभक्ति से परिपूर्ण क्रांतिकारी कविताएं रचीं उनका संग्रह 1935 में ‘रेणुका’ नाम से निकला। इस काव्य संग्रह का पूरे हिन्दी जगत् में उत्साह के साथ स्वागत किया गया। फिर सन् 1938 में ‘धुंधार’ निकली। अब तक दिनकर’ का प्रचंड तेज समस्त हिन्दी साहित्यकाश में फैल चुका था। इनका पहला प्रबंध काव्य’ ‘कुरुक्षेत्र’ सन् 1946 में निकला जिसमें हिंसा-अहिंसा, युद्ध और शांति आदि समस्याओं पर उनके गहन विचारों का अनुवाद कन्नड़ और तेलुगु आदि भाषाओं में हो चुका है। फिर सन् 1952 में ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य जो महाभारत के उपेक्षित महानायक कर्ण के जीवन पर आधारित है। इसने दिनकर की लोकप्रियता को सर्वाधिक ऊंचाई दी। इन काव्यों के अंश हिन्दी भाषी जनता की जिह्वा पर उक्तियों की तरह चढ़े हुए हैं—
इन संकलनों में दिनकर जी के लगभग एक सौ पच्चीस निबंध संकलित हैं। उपर्युक्त सूची से पता चलता है कि दिनकर जी सन् 1940 के आसपास गद्य लेखन की ओर गंभीरता से प्रवृत्त हुए। उनका पहला संकलन ‘मिट्टी की ओर’ 1946 में प्रकाशित हुआ। जबकि कविता लेखन वे 15-16 वर्ष की अवस्था से ही करने लगे थे। उस समय वे माध्यमिक विद्यालय के छात्र थे।
उनकी पहली कविता 1924-25 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी। दिनकर की पहली काव्य पुस्तक ‘प्रण-भंग सन् 1929 में प्रकाशित हुई थी। यह ‘महाभारत’ के कथानक पर आधारित थी। इस समय उनकी अवस्था 21 वर्ष की थी।
पद्य से गद्य की ओर प्रवृत्त होने में दिनकर जी ने लगभग 20 वर्षों का समय लिया। प्राचीन मनीषियों ने भी गद्यं कवीणां निकषं वदन्ति ! अनुमान होता है कि दिनकर ने लगभग दो दशकों की काव्य–साधना के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ गद्य के क्षेत्र में प्रवेश लिया। तभी तो उनका गद्य इतना प्रगल्भ, परिमार्जित और प्रभावोत्पादक बन पड़ा है। बाद की पीढ़ियों के कवियों-लेखकों के लिए यह एक अनुकरणीय बात है।
इस ग्रंथ–सूची से यह भी पता चलता है कि वर्ष 1958-59 में दिनकर का गद्य–लेखन अपने उत्कर्ष पर था। इस साल उनके 5 निबंध संग्रह प्रकाशित हुए। ‘मिट्टी की ओर’ उनका पहला और ‘विवाह की मुसीबतें’ अंतिम निबंध संकलन माना जाता है। इस संबंध में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि लेखक का विवाह 1920-21 में हुआ था जब उनकी अवस्था 13 वर्ष की थी। लेकिन विवाह की मुसीबतें नामक यह संकलन सन् 1974 में अर्थात उनके विवाह के लगभग 54 वर्ष बाद प्रकाश में आया। उनकी पत्नी का नाम श्रीमती श्यामवती थी।
प्रस्तुत संकलन में संकलित रचनाएं उनकी जिन कृतियों से ली गई हैं, वे हैं-‘साहित्यमुखी’(1968), ‘मिट्टी की ओर’ (1946)’, ‘अर्धनारीश्वर’ (1952),’ ‘वेणुवन’ (1958), ‘वर-पीपल’ (1961), ‘चेतना की शिखा’ (1973), ‘रेती के फूल’ (1954) ‘हमारी सांस्कृतिक एकता’ (1954), ‘काव्य की भूमिका’ (1958), ‘देश-विदेश’ (1957), ‘धर्म, नैतिकता और विज्ञान’ (1959), शुद्ध कविता की खोज’ (1966), ‘लोकदेव नेहरू’ (1965), ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी (1968),‘भारतीय एकता’ (1970), आधुनिक बोध (1973) और ‘संस्कृति के चार अध्याय’। संकलित रचनाओं के इस क्रम से लेखक की विचार धारा के आरोह-अवरोह को रेखांकित करने में सहायता मिलती है।
इन संकलनों और इनसे लिए गए निबंधों के शीर्षकों पर गौर करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनमें साहित्यिक विषयों के साथ-साथ कला, संस्कृति, भाषा, धर्म–दर्शन, संस्मरण और यात्रा जैसे विषयों पर भी चर्चा की गई है। निबंधों के चयन के समय यह ध्यान में रखा गया है कि विषय–वस्तु की दृष्टि से यह संकलन राष्ट्रीय स्तर के पाठकों के लिए उपादेय हो।
हिन्दी के विद्यार्थियों और सामान्य पाठकों के बीच भी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का कवि रूप ही अधिक उजागर है। जबकि उनका गद्यकार रूप भी कम उज्जवल नहीं है। उनके निबंधों का यह संकलन तैयार करवाकर नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। इसके लिए दिनकर के सभी प्रेमियों को ट्रस्ट का आभारी होना चाहिए।
रचना संसार के साथ-साथ दिनकर का जीवन वृत्त भी दिलचस्प है। पाठकों को उनके निबंधों में व्यक्त विचारों और भावनाओं की पृष्ठभूमि को समझने में उनके जीवन वृत्त से सहूलियत होगी। हिन्दी साहित्याकाश के अपने समय के इस जाज्वल्यमान नक्षत्र की दीप्ति समय के अंतराल के साथ कुछ अर्चिचत–सी हो गई है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार प्रदेश के बेगूसराय (पुराने मुंगेर) जिले के सिमरिया गांव में एक निम्न मध्यवर्गीय भूमिहार ब्राह्मण किसान परिवार में 23 सिंतबर 1908 को हुआ था। यह ग्राम पुण्यतोया गंगा नदी के पावन उत्तरी तट पर बसा हुआ है। और मिथिलाचंल का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां पूरे उत्तर बिहार समेत नेपाल से तीर्थ यात्री बड़ी संख्या में आते हैं और प्रति वर्ष कार्तिक माह कल्पवास चलता है। किंवदंती यह है कि विवाहोपरांत सीता को विदा कराकर ले जाते समय राम ने इसी स्थान पर गंगा को पार किया था। तभी से यह स्थान सिमरियाघाट के नाम से प्रसद्धि है। इस नाम में से ‘म’ और ’रि’ को हटा दें तो वह ‘सियाघाट’ हो जाता है।
दिनकर जी के पिता का नाम बाबू रविराय (रविसिंह) था और पितामह का नाम शंकर राय था। इनके वंश में भैरवराय नामक एक कवि भी थे जिनकी ब्रजभाषा में लिखित पोथी ‘नगर-विलाप’ है। दिनकर जी की माता का नाम मनरूप देवी था।
उस जमाने में सिमरिया गांव के घर–घर में नित्य ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता था। उनके पिता जी अपने समाज में मानस के मर्मज्ञ समझे जाते थे और लोगों का ख्याल था कि उनको यह ग्रंथ लगभग पूरी तरह कंठस्थ है। इसी धर्ममय वातावरण में बालक रामधारी का जन्म और लालन-पालन हुआ।
जिस समाज में उन्होंने होश संभाला वह साधारण किसानों और खेतिहर मजदूरों का समाज था, जहां अधिकांश लोग निरक्षर और अंधविश्वासी थे। ‘दिनकर’ ने अपने जीवन मूल्य इसी परिवेश में स्थिर किए। इसी वातावरण में उन्होंने अपने साहित्य की दिशा निर्धारित की।
1 दिसंबर 1973 को जब दिनकर जी को ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब अपने उद्बोधन में उन्होने कहा था-भगवान ने मुझको जब इस पृथ्वी पर भेजा तो मेरे हाथ में एक हथौड़ा दिया और कहा कि जा तू इस हथौड़े से चट्टान के पत्थर तोड़ेगा और तेरे तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी कला के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे।....मैं रंदा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था। मेरे हाथ में तो कुल्हाड़ा था जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा था।....
अपने प्रशंसकों के बीच, जिनमें इन पंक्तियों के लेखक से लेकर स्व. जवाहरलाल नेहरू तक शामिल हैं, दिनकर, पौरुष और ललकार के कवि माने जाते हैं। राम स्वरूप चतुर्वेंदी जैसे प्रशंसा–कृपण आलोचकों ने भी उन्हें उद्बोधन का कवि माना है।
दिनकर जब दो साल के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया। उनके अग्रज और अनुज–दोनों ने इसीलिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और किसानी में लग गए ताकि दिनकर की पढ़ाई निर्बाध गति से चलती रहे। तेरह वर्ष की उम्र में इनका विवाह हुआ और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने माध्यमिक परीक्षा पास की। उनका काव्य-सृजन इसी समय शुरू हुआ।
सन् 1928 में दिनकर जी ने मैट्रिक पास किया। पूरे प्रांत में हिन्दी विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण उनको ‘भूदेव स्वर्ग-पदक’ प्रदान किया गया था। इसके बाद से सन् 1932 तक वे पटना कॉलेज के छात्र रहे और इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया।
दिनकर के छात्र जीवन का समय मोटे तौर पर स्वाधीनता संघर्ष में असहयोग आंदोलन का युग था। उस समय की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं में इतिहास और संस्कृति, धर्म और दर्शन तथा राजनीति से संबंधित सामग्री ही अधिक पाई जाती थी। उनमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में संबंधित चित्रों, कार्टूनों तथा देश भक्ति पूर्ण कविताओं और गीतों का ही बाहुल्य रहता था। राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, समाजवाद और साम्यवाद की चारों तरफ धूम थी। इसी समय ‘दिनकर’ राष्ट्रीय नेताओं की सभाओं में जाने लगे थे और यदा-कदा सभा मंचों से ‘वंदे मातरम्’ का गायन भी करने लगे थे।
उन दिनों पटने से प्रकाशित होने वाली ‘देश’ पत्रिका तथा कन्नौज से प्रकाशित ‘प्रतिभा’ पत्रिका में ‘दिनकर’ की कविताएं स्थान पाने लगी थीं। ‘देश के संस्थापक डॉ. राजेंद्र थे जो स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बने। उनकी पहली कविता जबलपुर से प्रकाशित ‘छात्र-सहोदर’ में छपी थी, जिसके संपादक पं. मातादीन शुक्ल थे। उसी जमाने में बेगूसराय (दिनकर का गृह जिला) से ‘प्रकाश’ नामक पत्रिका प्रकाशित होती थी जिसमें दिनकर की कविताएं प्रमुखता से छपा करती थीं। कहते हैं कि इसी समय उन्होंने अपना उपनाम ‘दिनकर’ रखा। उनके पिता का नाम भी ‘रवि’ था। इस प्रकार अपने ही शब्दों में वे ‘रवि के पुत्र दिनकर हुए।’
सन् 1933 में बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन भागलपुर में हुआ। उसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध इतिहासविद् और पुराविद् डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने की थी। उसी अधिवेशन में ‘दिनकर’ ने अपनी ‘हिमालय के प्रति’ कविता पढ़ी तो समस्त हिन्दी जगत में एकाएक उनका नाम फैल गया। उसी सम्मेलन में वे डॉ. जायसवाल के संपर्क में आए। उन्होंने ही इनकी प्रतिभा को अपने प्रेम और प्रोत्साहन से सींचा। उस समय जायसवाल जी की पुस्तक ‘हिन्दी पॉलिटी’ की चारों तरफ चर्चा थी। स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए संगति और उस माहौल का परिणाम यह निकला कि दिनकर की साहित्य साधना पर इतिहास तथा राष्ट्रवादी विचारधारा का पहले से ही चढ़ा हुआ रंग कुछ और गाढ़ा हो गया।
सन् 1930-35 की अवधि में दिनकर ने जितनी देशभक्ति से परिपूर्ण क्रांतिकारी कविताएं रचीं उनका संग्रह 1935 में ‘रेणुका’ नाम से निकला। इस काव्य संग्रह का पूरे हिन्दी जगत् में उत्साह के साथ स्वागत किया गया। फिर सन् 1938 में ‘धुंधार’ निकली। अब तक दिनकर’ का प्रचंड तेज समस्त हिन्दी साहित्यकाश में फैल चुका था। इनका पहला प्रबंध काव्य’ ‘कुरुक्षेत्र’ सन् 1946 में निकला जिसमें हिंसा-अहिंसा, युद्ध और शांति आदि समस्याओं पर उनके गहन विचारों का अनुवाद कन्नड़ और तेलुगु आदि भाषाओं में हो चुका है। फिर सन् 1952 में ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य जो महाभारत के उपेक्षित महानायक कर्ण के जीवन पर आधारित है। इसने दिनकर की लोकप्रियता को सर्वाधिक ऊंचाई दी। इन काव्यों के अंश हिन्दी भाषी जनता की जिह्वा पर उक्तियों की तरह चढ़े हुए हैं—
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन, विष रहित, विनीत, सरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन, विष रहित, विनीत, सरल हो।
दिनकर की कोई 32 काव्य कृतियां एक-एक कर प्रकाश में आईं। लेकिन
‘उर्वशी’ (1961) महाकाव्य को उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति
माना जाता
है, उसके लिए सन् 1973 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। उनकी गद्य
रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें सन्
1959 में
साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। इनकी कई रचनाओं का अंग्रेजी, रूसी,
स्पेनिश आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
उनका व्यक्तिगत जीवन संघर्षों, उपलब्धियों और दायित्वों से भरा रहा। स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। सन् 1934 में सरकारी नौकरी में गए और सन् 1942 तक सब–रजिस्ट्रार के पद पर रहे, जमीन–जायदाद और शादी-ब्याह से संबंधित दस्तावेजों का पंजीयन करना था। सन् 1947 में वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में उपनिदेशक बने। इसके बाद से उनके जीवन में पदों और सम्मानों की बाढ़ सी आ गई।
स्नातकोत्तर उपाधि से रहित होने के बावजूद उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक नियुक्त किया गया। यह उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का सम्मान था। बारह वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। फिर भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। इसके बाद भारत सरकार के गृहमंत्रालय में हिन्दी सलाहकार मनोनीत हुए। सन् 1971 में वे सारे पदभारों से मुक्त होकर पटना चले आए।
इस बीच सन् 1959 में उन्हें ‘पद्मभूषण की उपाधि प्रदान की गई। सन् 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, पश्चिम जर्मनी और रूस के साथ-साथ चीन, मिस्त्र और मॉरीशस आदि देशों का भी भ्रमण किया। इस क्रम में बड़े-बड़े राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से उनकी निकटता बढ़ी।
इस पूरे दौर में एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार का दायित्व उनके कंधों पर रहा। उन्होंने अपने हाथों दस कन्याओं का विवाह रचाया, जिसमें उनकी दो पुत्रियां, छह भतीजियां तथा दो पोतियां शामिल हैं। इसको वे अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते थे।
उनका व्यक्तिगत जीवन संघर्षों, उपलब्धियों और दायित्वों से भरा रहा। स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। सन् 1934 में सरकारी नौकरी में गए और सन् 1942 तक सब–रजिस्ट्रार के पद पर रहे, जमीन–जायदाद और शादी-ब्याह से संबंधित दस्तावेजों का पंजीयन करना था। सन् 1947 में वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में उपनिदेशक बने। इसके बाद से उनके जीवन में पदों और सम्मानों की बाढ़ सी आ गई।
स्नातकोत्तर उपाधि से रहित होने के बावजूद उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक नियुक्त किया गया। यह उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का सम्मान था। बारह वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। फिर भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। इसके बाद भारत सरकार के गृहमंत्रालय में हिन्दी सलाहकार मनोनीत हुए। सन् 1971 में वे सारे पदभारों से मुक्त होकर पटना चले आए।
इस बीच सन् 1959 में उन्हें ‘पद्मभूषण की उपाधि प्रदान की गई। सन् 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, पश्चिम जर्मनी और रूस के साथ-साथ चीन, मिस्त्र और मॉरीशस आदि देशों का भी भ्रमण किया। इस क्रम में बड़े-बड़े राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से उनकी निकटता बढ़ी।
इस पूरे दौर में एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार का दायित्व उनके कंधों पर रहा। उन्होंने अपने हाथों दस कन्याओं का विवाह रचाया, जिसमें उनकी दो पुत्रियां, छह भतीजियां तथा दो पोतियां शामिल हैं। इसको वे अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते थे।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book